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त्वꣳ सो॑म पि॒तृभिः॑ संविदा॒नोऽनु॒ द्यावा॑पृथि॒वीऽआ त॑तन्थ। तस्मै॑ तऽइन्दो ह॒विषा॑ विधेम व॒य स्या॑म॒ पत॑यो रयी॒णाम् ॥५४ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वम्। सो॒म॒। पि॒तृभि॒रिति॑ पि॒तृऽभिः॑। सं॒वि॒दा॒न इति॑ सम्ऽविदा॒नः। अनु॑। द्यावा॑पृथि॒वीऽइति॒ द्यावा॑पृथि॒वी। आ। त॒त॒न्थ॒। तस्मै॑। ते॒। इ॒न्दो॒ऽइति॑ इन्दो। ह॒विषा॑। वि॒धे॒म॒। व॒यम्। स्या॒म॒। पत॑यः। र॒यी॒णाम् ॥५४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:19» मन्त्र:54


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सोम) चन्द्रमा के सदृश आनन्दकारक उत्तम सन्तान ! (पितृभिः) ज्ञानयुक्त पितरों के साथ (संविदानः) प्रतिज्ञा करता हुआ जो (त्वम्) तू (अनु, द्यावापृथिवी) सूर्य और पृथिवी के मध्य में धर्मानुकूल आचरण से सुख का (आ, ततन्थ) विस्तार कर। हे (इन्दो) चन्द्रमा के समान प्रियदर्शन ! (तस्मै) उस (ते) तेरे लिये (वयम्) हम लोग (हविषा) लेने-देने योग्य व्यवहार से सुख का (विधेम) विधान करें, जिससे हम लोग (रयीणाम्) धनों के (पतयः) पालन करनेहारे स्वामी (स्याम) हों ॥५४ ॥
भावार्थभाषाः - हे सन्तानो ! तुम लोग जैसे चन्द्रलोक पृथिवी के चारों और भ्रमण करता हुआ सूर्य की परिक्रमा देता है, वैसे ही माता-पिता आदि के अनुचर होओ, जिससे तुम श्रीमन्त हो जाओ ॥५४ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(त्वम्) (सोम) सोमवद्वर्त्तमान (पितृभिः) ज्ञानयुक्तैः (संविदानः) प्रतिजानन् (अनु) (द्यावापृथिवी) सूर्यश्च पृथिवी च ते (आ) (ततन्थ) विस्तृणीहि (तस्मै) (ते) तुभ्यम् (इन्दो) चन्द्रवत् प्रियदर्शन (हविषा) दातुमादातुमर्हेण पदार्थेन (विधेम) परिचरेम (वयम्) (स्याम) भवेम (पतयः) अधिष्ठातारः (रयीणाम्) राज्यश्रियादीनाम् ॥५४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सोम सुसन्तान ! पितृभिः सह संविदानो यस्त्वमनु द्यावापृथिवी सुखमाततन्थ। हे इन्दो ! तस्मै ते वयं हविषा सुखं विधेम यतो रयीणां पतयः स्याम ॥५४ ॥
भावार्थभाषाः - हे सन्तानाः ! यूयं यथा चन्द्रलोकः पृथिवीमभितो भ्रमन् सन् सूर्यमनुभ्रमति, तथैव पित्रध्यापकादीननुचरत, यतो यूयं श्रीमन्तो भवत ॥५४ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे संतानांनो ! चंद्र जसा पृथ्वीभोवती फिरत फिरत सूर्याभोवती प्रदक्षिणा करतो, तसेच तुम्ही माता व पिता यांचे अनुचर बना व ऐश्वर्यवान व्हा.